shri durga shapt shati-achary sadanand -samiksha v chhand in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा छन्द 1

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श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा छन्द 1

श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा & छन्द 1

श्री दुर्गायन" दर असल श्री दुर्गा सप्तशती का छन्द अनुवाद है जो आचार्य सदानंद द्वारा किया गया है । इसके प्रकाशक शाक्त साधना पीठ कल्याण मंदिर प्रकाशन अलोपी बाग मार्ग इलाहाबाद 6,  थे। यह जुलाई 1987  में प्रकाशित की गई थी ।तब इसका मूल्य ₹10 रखा गया था। अब यह पुस्तक अप्राप्त है ।

पुस्तक के अनुक्रम में कुल 21 बिंदु रखे गए हैं। सबसे पहले श्रीपाद मुक्तानंद जी का आशीर्वाद है। सप्त श्लोकी दुर्गा' अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र, श्रीदेवी कवच, रात्रि सूक्त के बाद पहले से 13 वे तक अध्याय लिखे गए हैं। अंत में देवी सूक्त और क्षमा प्रार्थना शामिल की गई है। भूमिका में श्रीपाद मुक्तानंद जी लिखते हैं कि सदानंद जी ने एम ए हिंदी साहित्य से किया है। साहित्य रत्न किया है और कवि रत्न भी किया है । इसलिए उनकी भाषा और व्याकरण में गहरी रुचि और गति है। दुर्गा सप्तशती के अनुवाद के पदों की भाषा संस्कृत निष्ठ होने के बाद भी लालित्य पूर्ण है। कहीं भी जटिलता और कठिनाई महसूस नहीं होती है। संस्कृत निष्ठ भाषा होते हुए भी यह भाषा आम आदमी की समझ में आ जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि कठिन श्लोक का सरलतम अनुवाद श्री सदानंद जी ने किया है। हिंदी साहित्य सदानंद जी का बड़ा आभारी रहेगा। यह पुस्तक जब से पढ़ी  है। अनेकों बार समीक्षक ने इसका अध्ययन किया है और कहीं भी कोई त्रुटि महसूस नहीं होती है। इस पुस्तक के समीक्षा के प्रमाण में कुछ अध्याय और पद प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

 
 
 

श्री दुर्गायण

 

(श्री दुर्गा सप्तशती का छन्दानुवाद)

 

रचयिता

 

आचार्य सदानन्द

 

प्रकाशक

 

शाक्त-साधना-पीठ

 

कल्याण मन्दिर प्रकाशन

 

अलोपीबाग मार्ग, इलाहाबाद-६

 

अ - नु - क्र - म

 

१ श्रीपाद मुक्तानन्द जी का आशीर्वाद

 

२ सप्त-श्लोकी दुर्गा

 

 

३ अर्गला स्तोत्र

 

 

 

४ कीलक स्तोत्र

 

 

 

५ श्री देवी कवच

 

 

 

६ रात्रि-सूक्त

 

 

 

७ पहला अध्याय (मधु-कैटभ का संहार)

 

 

 

८ दूसरा अध्याय (सेना-सहित महिषासुर का संहार)

 

 

६ तीसरा अध्याय (महिषासुर-वध)

 

१० चौथा अध्याय (देवताओं द्वारा स्तुति)

 

११ पाँचवाँ अध्याय (देवी-स्तुति एवं प्राकट्य)

 

१२ छठा अध्याय (धूम्र-लोचन-बध)

 

१३ सातवाँ अध्याय (चण्ड और मुण्ड का वध)

 

१४ आठवाँ अध्याय (रक्त-वीज-वध)

 

१५ नवाँ अध्याय (निशुम्भ-बध)

 

१६ दसवाँ अध्याय (शुम्भ-बध)

 

१७ ग्यारहवाँ अध्याय (देवताओं द्वारा स्तुति)

 

१८ बारहवाँ अध्याय (देवी-चरितों का माहात्म्य)

 

१९ तेरहवाँ अध्याय ( देवी का वरदान)

 

 

२० देवी-सूक्त

 

 

२१ क्षमा-प्रार्थना

 

 

 

 

परम पूज्य बाबा श्री १००८

 

श्रीपाद मुक्तानन्द जी महाराज का आशीर्वाद

 

श्री माँ के इस चरित को हिन्दी भाषा में साधकों और आराधकों के लिये प्रस्तुत करने की मेरी भावना की पूर्ति  चिर-ञ्जीव सदानन्द के द्वारा हुई। मां ने प्रेरणा देकर अपने सेवक से कुछ सेवा प्राप्त की, यह बड़ा सन्तोष और आनन्द का विषय है। यह चरित साधकों और भक्तों का जीवन-प्राण रहा है और रहेगा । सहस्रों वर्षों से 'सप्तशती स्तोत्र' नैत्यिक और नैमित्तिक उपासना के लिये प्रयुक्त हो रहा है। इसकी प्रचण्ड फल-दात्री शक्ति और अपार प्रत्यक्ष प्रभाव को युगों से अनुभव किया जा रहा है-किया जाता रहेगा ।

 

संस्कृत के इस सिद्धि-दाता स्तोत्र-रत्न को सर्व-सुलभ बनाना अत्यन्त आवश्यक था। कठिनाई केवल मूल की सुरक्षा एवं तन्त्र-सम्मत प्रयोगों के स्वरूपों के निर्वाह की थी। इस अनु-वाद में इन दोनों सूक्ष्मताओं का अत्यन्त सजगता से पालन किया गया है। इसे सर्वाङ्ग सम्पूर्ण बनाने के लिये सम्पूर्ण अङ्ग-उपाङ्गों को भी शुद्ध रूप से अनुवादित किया गया है। इस प्रकार धार्मिक एवं तान्त्रिक दृष्टि से माँ के अनुरागी भक्तों को

यह साधन बहुत सहायक सिद्ध होगा। हृदय में श्रद्धा और विश्वास तथा आवश्यक विधियों का पालन करते हुये इस अनुवाद से किया गया पाठ मूल के समान ही फल-प्रद होगा-यह विश्वास किया जा सकता है। अनुवाद में यथा-क्रम मूल-मन्त्रों के बीजाक्षरों का प्रयोग इसकी प्रभाव-शालिता को अनेक गुना बढ़ा देता है। संस्कृत न जाननेवाले साधक इससे पाठ और प्रयोग कर अवश्य सफल होंगे, ऐसा विश्वास है ।

 

एक बात और मैं साहित्य एवं भाषा-सौन्दर्य का ज्ञाता न कभी था और न हूँ, परन्तु चि० सदानन्द, हिन्दी साहित्य में पर्याप्त गति रखते हैं। सम्भवतः उनका एम० ए०, साहित्यरत्न, कविरत्न आदि होना उपयोगी हुआ हो । मुझे बार-बार इसे देख कर यह विचार उत्पन्न हुआ कि अनुवाद में काव्य-शास्त्र और साहित्यिक उच्चता का निर्वाह भी हुआ है। यदि हिन्दी के काव्य-प्रेमियों में इस दृष्टि से भी इस अनुवाद को कोई स्थान मिला, तो यह बड़े आनन्द का विषय होगा । भक्त कवि की रचना अपने मूल उद्देश्य - सिद्धि के अतिरिक्त, यदि साहित्य की रस-सृष्टि भी कर पाती हो, तो यह दुहरा लाभ प्राप्त होगा। भाषा की दृष्टि से भी अनुवाद का स्वरूप उच्च-स्तर का रहा है, विना ऐसा किए मूल-भावों की यथा-तथ्य अनुकृति सम्भव न थी । शुभम् ।

 

- श्रीपाद मुक्तानन्द

 

अमर-कण्टक,

 

दुर्गाष्टमी, चैत्र सम्वत् २०१९ वि०

 

(पाँच)

 

 

 

 

 

 

सप्त-श्लोकी दुर्गा

 

।। श्री भगवान् शिव कथन ।।

 

देवि ! सुलभ तुम भक्त जनों को, सभी कार्य साधक करुणा धन ।

 

कलियुग में भी कार्य-सिद्धि के, हेतु बतायें कोई साधन ।।

 

।। श्री भगवती देवी कथन ।।

 

सुनिये देव ! बताती हूँ मैं, कलियुग का सर्वेप्सित साधन ।

 

विवश आपके स्नेह, प्रकट करती हूँ, यह अम्बा - स्तुति पावन ।।

 

विनियोग : 

इस सप्त-श्लोकी के ऋषि नारायण, छन्द अनुष्टुप्, देवता श्रीमहा-काली, महा-लक्ष्मी, महा-सरस्वती और विनियोग महा-काली, महा-लक्ष्मी, महा-सरस्वती की प्रीति के लिये है।

 

ॐ देवी वे भगवती, चित्त -ज्ञानी जन के भी कर आकर्षण ।

 

बल-पूर्वक हैं, मोह-पाश में देतीं, बाँध महा - माया बन।१।।

 

 

प्राणियों के भय करतीं नष्ट, स्मरण करते ही दुर्गा - नाम ।

 

स्वस्थ-जन को चिन्तन के साथ, श्रेष्ठ शुभ मति देतीं उद्दाम ।।

 

अम्ब ! अतिरिक्त तुम्हारे कौन, करे दारिद्रय - दुःख भय ध्वस्त ?

 

करे जो सन्तत पर-उपकार, चित्त करुणार्द्र कृपा अभ्यस्त ॥२

 

मङ्गल-मयी ! सर्व सुख कारक ! शिवे, सर्व - हित - साधन - धाम ।

 

आश्रित-वत्सल ! गौरी ! त्रिनेत्रे !, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ॥३

 

शरणागत-दीनार्त - जनों की, रक्षा में पटु नित निष्काम ।

सर्वापत्ति-निवारक जय हे, मां नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।४

 

सर्व-स्वरूपिणि सर्व-स्वामिनी, सर्व - शक्ति - सम्पन्न सकाम ।

 

सर्-भयों से त्राण करो, हे जननी दुर्गे ! तुम्हें प्रणाम ।।५

 

 

देवि ! तुम्हारी तुष्टि, विनाशक -आधि - व्याधि  दल और रोष विध्वंसक, सब आशा  -अभीष्ट फल होता नर अविपन्न तुम्हारा, पा आश्रय बल।

शरणागत जन, औरों का, बनता शरण स्थल ।।६

 

सर्वेश्वरि ! तुम अखिल लोक की, बाधाओं को इसी प्रकार ।

 

करती रहो प्रशान्त, हमारे शत्रु-जनों का कर संहार ।।७

 

 

 

अर्गला स्तोत्र

 

[इस अर्गला स्तोत्र-मन्त्र के ऋषि विष्णु , छन्द बनुष्टुप्, देवता श्री महा-लक्ष्मी-चण्डिका, शक्ति 'ह्रीं', बीज 'ऐं' और विनियोग श्रीमहा-लक्ष्मी चण्डिका की प्रसन्नता-प्राप्ति एवं समस्त पाप-निवारण के लिए है।]

 

।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।।

 

श्री मार्कण्डेय कथन

 

ॐ हे जयन्ती ! मंगला ! हे कालिका, भद्रकाली ! 

हे कपालिनि ! मैं शरण । 

देवि दुर्गे ! हे क्षमा ! धात्त्री ! शिवा, स्वधा ! स्वाहा ! मैं विनत हूँ श्रीचरण ।।१ 

देवि चामुण्डे ! तुम्हारो जय सदा, प्राणि-पीड़ा-नाशिका हे देवि ! जय । 

जय तुम्हारी सर्व-व्याप्ता अम्बिके, नमन तुमको काल-रात्रि ! करो अभय ।।२

 

दैत्य मधु-कैटभ-विनाशिनि, तम-मयी, ब्रह्म-वर-दायिनि ! तुम्हें शत-शत नमन ।

 

रूप दो, जय दो, सुयश दो कालिके, और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।३

 

प्रबल दानव महिष-विध्वंसिनि ! जये, भक्त सुख-दायिनि ! प्रणत हूँ श्रीचरण ।

रूप दो, जय दो, सुयश दो श्रीशुभे, और कर दो नाश रिपु, अशरण शरण ।।४

 

दंत्य अद्भुत रक्त - बीज निपातिनी, चण्ड-मुण्ड संहार कृति कारण-करण ।

 

रूप दो, जय दो, सुयश दो चण्डिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।५ 

 

शुम्भ दैत्य निशुम्भ दानव-दल-सहित, धूम्र - लोचन - नाशिनी संक्रुद्ध रण ।

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अम्बिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ॥६

 

दायिनी सौभाग्य सब विधि का परम, सर्व - जन - वन्दित युगल हैं श्री चरण ।

रूप दो, जय दो, सुयश दो, हे शिवे ! और कर दो नाश रिपु, अशरण शरण ।।७

 

 

 

देवि ! अद्भुत रूप, चरित अचिन्त्य हैं, तुम विनाशक सर्व-अरि, दानव-दलन । 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अनुपमे ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ॥८

 

पद प्रणत जो भक्ति-पूर्वक भक्त-जन, दुरित करतीं दूर तुम प्रत्येक क्षण । 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अम्बिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।९ 

भक्ति-पूर्वक स्तवन करते भक्त जो, व्याधि-नाशिनि जो तुम्हें करते स्मरण । 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अम्बिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१०

 

विश्व में अर्चन तुम्हारा कर रहे, भक्त श्रद्धा - युक्त जो होकर शरण । 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अम्बिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।११ 

दो मुझे सौभाग्य औ, आरोग्य दो, दो मुझे शुभ श्रेष्ठ सुख हे दुख-हरण । 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अम्बिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१२

 

 

द्वेष - कर्ता नष्ट हों मेरे सभी, वृद्धि कर दो शक्ति, कर बल-संचरण ।

 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, विक्रमे ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१३

 

तुम करो कल्याण मेरा हे शिवे ! दो मुझे सम्पत्ति स्थिर शोभा धरण ।

 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, पद्मजे ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१४

 

अम्बिके ! श्रीचरण पर लुण्ठित सदा, देव-दानव-भाल मणि-युत मुकुट-गण ।

 रूप दो, जय दो, सुयश दो, जग-जननि ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१५ 

भक्त-जन को करो विद्या-वन्त तुम, कोति-लक्ष्मी युगल कर दो आभरण । 

रूप दो, जय दो, सुयश दो, शारदे ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१६ चण्ड-दानव-दर्प - खण्डिनि चण्डिके !शरण आगत मैं तुम्हारे श्रीचरण ।

 रूप दो, जय दो, सुयश, करुणा-मयी ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१७

 

 

तुम चतुर्भुज रूप से परमेश्वरी ! हुई आराधित विधाता जग करण !

 

रूप दो, जय दो, सुयश जगदम्बिके ! और कर दो नाश रिपु, अशरण-शरण ।।१८ 

 

अम्बिके ! श्रीविष्णु करते भक्ति-युत, ध्यान-आराधन सदैव जगद् - भरण । 

रूप दो, जय दो, सुयश जग-पोषणे ! नाश कर दो शत्रु-गण, तारण-तरण ।।१९

 

भगवती ! हो संस्तुता तुम नित्य-प्रति, देव गौरी नाथ शिव सर्वाभरण ।

रूप दो, जय दो, सुयश दो, शैलजे ! नाश कर दो शत्रु-गण, तारण-तरण ।।२०

 देवि ! तुम हो शची-पति सुर-राज से, पूजिता सद्-भाव-युत मङ्गल-करण ।

रूप दो, जय दो, सुयश सुर-वल्लभे ! नाश कर दो शत्रु-गण, तारण-तरण ।।२१ 

देवि ! तुम हो दर्प-दलिनी दैत्य-दल, गर्व भुज-बल से भरे कुटिलाचरण ।

रूप दो, जय दो, सुयश दो, विक्रमे ! नाश कर दो शत्रु-गण, तारण-तरण ॥२२

 

देवि ! तुम निज भक्त को सीमा-रहित, दान करती हो सदा आनन्द-क्षण ।

रूप दो, जय दो, सुयश दो, अम्बिके ! नाश कर दो शत्रु-गण, तारण-तरण ॥२३

 

देवि ! दो पत्नी मनोरम रूपसी हो, हृदय आशानुरूप सदाचरण ।

श्रेष्ठ-कुल अभिजात, शील-सनेह-युत, कठिन जग-सागर करा दे सन्तरण ।।२४ 

इस स्तवन के पाठ के उपरान्त, जो मनुज करता स्तोत्र विस्तृत का पठन प्राप्त करता सप्त-शति का श्रेष्ठ फल, और पा जाता सहज ही अमित धन ॥२५

 

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कीलक स्तोत्र

 

[इस कीलक-स्तोत्र-मन्त्र के ऋषि शिव, छन्द अनुष्टुप्, देवता श्रीमहा-सरस्वती चण्डिका, बीज 'ऐं', शक्ति 'ह्रीं', विनियोग श्रीमहा-सरस्वती ॥ चण्डिका की प्रसन्नता और कल्पोक्त फल प्राप्ति के लिये हैं ।]

 

।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।।

 

श्री मार्कण्डेय कथन

 

शुद्ध ज्ञान हो तन जिनका, त्रय-नेत्र -दिव्य हैं, वेद सनातन ।

 

श्रेय - प्राप्ति के हेतु, सदा - शिव, शशि किरीट धर सादर वन्दन ।।१

 

अभि-कीलक मन्त्रों का अतिशय, आवश्यक परि - ज्ञान पूर्ण - तम ।

 

साधन चाहे अपर मन्त्र का करे भक्त, फल श्रेय महत्तम ॥२

 

अन्य मन्त्र भी षट्-कर्मों के सिद्धि-प्रदाता वाञ्छित -दायक

 

सप्तशती स्तुति अनुपम, देवी तुष्टि, पाठ ही बने सहायक ॥३

 

 

औषधि मन्त्र उपाय अन्य की, आवश्यकता है न अल्प तर ।

 

सर्व-कर्म उच्चाटन आदिक, होते सिद्ध, बिना जप गुरु-तर ।।४

 

देव सदा शिव ने शंका हर, किया रहस्य स्पष्ट उद्-घोषित ।

 

सर्व-श्रेष्ठ कल्याण - प्रदायक, सप्तशती - स्तुति हो चिर पोषित ।।५

 

किया गुप्त चण्डिका - स्तोत्र को, शिव ने परम गोप्य साधन कर ।

 

क्षीण पुण्य अन्योपासक होता, पर इसका पुण्य सदाऽक्षर ।। ६

 

निस्सन्देह श्रेय पाता वह भी, इसके प्रयोग करने पर ।

 

कृष्ण पक्ष तिथि अष्ट, चतुर्दश को साधक एकाग्र चित्त कर ॥७

 

जगदम्बा को कर देता जो, जन अपना सर्वस्व सर्मापत ।

 

और प्रसाद रूप करता स्वीकार, यही कीलन शिव स्वीकृत ।।८

 

यों निष्कीलित कर जो नियमित, स्तोत्र पाठ करता सोच्चारित ।

 

वह हो जाता सिद्ध, देवि - पार्षद, अथवा गन्धर्व प्रमोदित ॥ ९

 

सभी ठौर करने पर विचरण, उसे न होता किश्वित भी भय ।

 

विवश नहीं अप-मृत्यु-पाश वह, पाता मोक्ष धाम हो चिन्मय ।।१०

 

अतः ज्ञान कीलन का पाकर, बुद्धि - मान हो साधन में रत ।

 

पाठारम्भ करे कीलन कर, नष्ट अन्यथा होगा फल-हृत ।।११

 

यह देवी प्रसाद हो दर्शित, सौभाग्यादि नारि-गण में नित ।

 

अतः सतत इस स्तोत्र-श्रेष्ठ का, आवश्यक है पाठ भक्ति - युत ॥१२

 

जिनके शुभ प्रसाद का फल-ऐश्वर्य, स्वास्थ्य, सौभाग्य, महा-धन ।

 

शत्रु-नाश औ मोक्ष, अम्बिका-स्तुति-क्यों करते नहीं मूढ़ जन ?

 

श्रीदेवी कवच

 

नेवी कवच

 

अथ देव्याः कवचम्

 

[ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः । श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे]

 

 

।। श्री नमश्चण्डिकाये।।

 

श्री मार्कण्डेय कथन 

ॐ पूज्य पितामह ! मुझे बतायें, कोई परम श्रेष्ठ शुभ साधन ।

 

जो हो अतिशय गोप्य, सभी का, रक्षक, अमिट प्रभाव सनातन ।।१

 

श्री ब्रह्मदेव कथन 

ब्रह्मन् ! देवी कवच दिव्य है। केवल एक गुह्य-तम साधन ।

परम पवित्र, अमित उपकारक, करें श्रवण होकर निर्मल मन ॥२

 

प्रथम 'शैल- पुत्री' जगदम्बा, 'ब्रह्मचारिणी' द्वितीय मूर्ति कल ।

 

तृतीय 'चन्द्र घण्टा' स्वरूप, 'कूष्माण्डा' देवि चतुर्थ महा - बल ॥३

 

'स्कन्द-जननि' पंचम प्रधान, 'कात्यायनि' षष्ठ, दिव्य छवि शोभन ।

 

सप्तम 'काल-रात्रि' भय-नाशिनि, अष्टम 'महा-गौरि' उज्ज्वल तन ।॥४

 

नवम 'सिद्धि - दात्री' करुणा - मयी, नव-दुर्गा नव-रूप मनोहर ।

 

सभी नाम ये प्रतिपादित शुचि-वेद, प्रभाव अलौकिक सुन्दर ।।५

 

चण्ड अनल ज्वाला - पीड़ित, अथवा हो रिपु-आक्रान्त रण-स्थल ।

 

हो भयार्त शरणागत होते, जो जन उन्हें न स्वल्प अमङ्गल ॥६

 

रण में संकट में, उन सबको, होती कभी न पीड़ा किंचित ।

 

कोई शोक, दुःख-भय उनको, प्राप्त न होता अभय चित्त नित ॥७

 

भक्ति - भाव से किया जिन्होंने, देवि स्मरण अभ्युदय सुनिश्चित ।

 

देवेश्वरि ! चिन्तन करनेवाले, जन की रक्षक तुम सुविदित ॥८

 

 

चामुण्डा आरूढ प्रेत पर, वाराही शोभित महिषासन ।

ऐन्द्री ऐरावत वाहन शुभ, देवि वैष्णवी खग राजासन ।। ९

 

वृषभारूढ देवि माहेश्वरि, कौमारी शिखि - वाहन सुन्दर ।

विष्णु - प्रिया कर कमल - धारिणी, लक्ष्मी स्थित अरविन्दासन पर ।।१०

 

वाहन वृषभईश्वरी देवी, शोभा - मय शुचि श्वेत - कलेवर ।

 

हंस - विराजित, आभूषण-आभरण सर्व ब्राह्मी प्रकाश-कर ।।११

 

योग शक्ति सम्पन्न सर्व विधि, सभी मातृ - गण देवाराधित ।

अंग - अंग भूषण - सज्जित शुभ, रत्न-राशि आभा आलोकित ॥१२

 

दशित रथारूढ जो देवी-गण, मुद्रा क्रोधाकुल प्रोज्ज्वल ।

आयुध शंख, चक्र, मूशल, खर शक्ति, कराल गदा, भीषण हल ।।१३

खेटक, तोमर, उग्र अस्त्र, ले शस्त्र-पाश औ परशु महा-बल ।

 

कुन्तायुध, भैरव विशूल, उत्तम शाङ्ग धनु भीमायुध कल ।।१४

 

अखिल विश्व के दुष्ट दमन हित, भक्त गणों को करने निर्भय ।

 

सुर गण के कल्याण हेतु कर-सज्जित हैं वे शस्त्र-समुच्चय ।।१५

 

नमस्कार है तुम्हें, रौद्र अति महा - घोर विक्रम - धर दुर्जय ।

 

अमित शक्ति-संयुत, अमाप उत्साह, महा - भय - नाशिनि चिन्मय ॥१६

 

रिपुओं को भय - दायिनि कठिना, अम्बा ! करें मुझे संरक्षित ।

 

पूर्व दिशा में इन्द्र - शक्ति, आग्नेय-दिशा हो अग्नि प्ररक्षित ॥१७

 

दक्षिण में वाराही रक्ष, खड्ग - धारिणी कोण सु - नैऋत ।

 

पश्चिम वारुणि, औ मृग - वाहनि, हों रक्षक वायव्य दिशा नित ।।१८

 

कौमारी उत्तर में, धारिणि शूल करें ईशान्य प्ररक्षण ।

 

ब्राह्मी करें ऊर्ध्वं  से, देवी विष्णु-प्रिया अध तल से रक्षण ।।१९

 

इसी भाँति चामुण्डा रक्षा करें, दिशा दश में शव - वाहन ।

 

अग्र भाग में जया, पृष्ठ में, विजया रक्षा करें प्रति क्षण ॥२०

 

वाम पार्श्व को अजिता, दक्षिण अपराजिता करें संरक्षित ।

 

रक्षित शिखा करे उद्योतिनि, उमा - देवि हों शीष - अवस्थित ।।२१

 

माला - धारी भाल - रक्षक हों, भ्रू-रक्षक हों देवि यशस्विनि ।

 

देवि नि - नेत्रा मध्य ध्रुवों की, यम - घण्टा नासिका प्ररक्षिणि ॥२२

 

चक्षु - मध्य शङ्खिनी, कर्ण की रक्षा करें द्वार - वासिनि नित ।

 

हों कपोल रक्षित काली से, कर्ण - मूल शाङ्करी सुरक्षित ॥२३

 

 

देवि सुगन्धा नासा अन्तर, हों ऊध्र्वोष्ठ चर्चिका संस्थित ।

 

अधर अमृता तथा शारदा, रक्षित जिह्वा हो मेरी नित ।।२४

 

करें दशन रक्षण कौमारी, कण्ठ - प्रदेश चण्डिका दुर्जय ।१५

 

चित्र घण्टिका, कण्ठ, घण्टिका, तालु महा- माया रक्षक जय ।।२५

 

कामाक्षी हों चिबुक, वाणि की सर्व - मङ्गला हों संरक्षक ।

 

ग्रीवा भद्र - कालि, धनु - धारिणि, पृष्ठ - वंश रक्षा सन्दर्शक ॥२६

 

बहिः कण्ठ की नील - ग्रीविका, नल - कूबरि नलिका-रक्षा - कर ।

 

स्कन्ध खड्गिनी वज्र - धारिणी, बाहु करें रक्षण करुणाकर ॥२७

 

करें दण्डिनी कर - संरक्षण, हस्तांगुलि अम्बिका कृपा-मय ।

 

शूलेश्वरी नखों की रक्षक़, कुलेश्वरी हों कुक्षि - दोष - क्षय ॥२८

 

 

महा-देवि स्तन, शोक-नाशिनी मन-संरक्षण को हों तत्पर ।

 

हृदय निवास करें श्रीललिता, शूल-धारिणी उदर - दोष - हर ॥२९

 

नाभि कामिनी, गुह्य भाग गुह्येश्वरि रक्षित हों सु-पुष्ट - तर ।

 

लिङ्ग कामिका और पूतना, रक्षित गुदा महिष - वाहन खर ।।३०

 

कटि - रक्षण भगवती करें, विन्ध्येश्वरि जानु-भाग - रक्षा-रत ।

 

सर्व - काम - दायिनि रक्षक हों, महा - बला युग - जंघा अविरत ॥३१

 

गुल्फ नारसिंही से रक्षित हों, पद पृष्ठ तैजसी पोषित ।

 

पादांगुलि श्रीदेवि, चरण तल, तल - वासिनी करें आमोदित ॥३२

 

नख रक्षक रद-तीक्ष्ण कराली, ऊर्ध्व - केशिनी केश त्राण कर ।

 

रोम - कूप कौबेरी औ वागीश्वरि, त्वचा रक्ष ममता - धर ॥३३

 

करें पार्वती रक्त - मांस-मज्जास्थि - वसा - मेदा - संरक्षण ।

 

काल रात्रि अँतड़ियाँ-पित्त की मुकुटेश्वरि हों रक्षा-कारण ।।३४

 

कोश - कमल पद्मावति रक्षक, कफ चूड़ामणि द्वारा रक्षित ।

 

ज्वाला - मुखि नख - ज्योति, अभेद्या देह-सन्धि की रक्षक निश्चित ॥३५

 

करें वीर्य रक्षण ब्रह्माणी, छत्रेश्वरि हों छाया रक्षक ।

 

धर्म - धारिणी अहं, बुद्धि, मन की । होवें रक्षा रत पोषक ॥३६

 

प्राण अपान उदान व्यान औ, वायु समान वज्र - हस्ता कल ।

 

रक्षा करें प्राण मेरे की, श्री कल्याण शोभना उज्ज्वल ॥३७

 

रूप - गन्ध - रस - शब्द - स्पर्श की, रक्षा करें योगिनी सन्तत ।

 

देवी नारायणी रहें सत-रज-तम की रक्षा में अविरत ॥३८

 

 

बाराही हों आयु - धर्म-रक्षा में देवि वैष्णवी सुस्थिर ।

 

रहें चक्रिणी सुयश - कीर्ति -लक्ष्मी धन विद्या-रक्षण तत्पर ॥३९

 

इन्द्राणी हों गोत्र - प्रपोषक, पशु - रक्षक चण्डिका महा - बल ।

 

करें महा- लक्ष्मी पुत्रों की, भार्या रक्षा भैरवि प्रति पल ।।४०

 

पथ रक्षा सुपथा से हो, रक्षण हो मार्ग क्षेम-करि से नित ।

 

राज द्वार में महा - लक्ष्मि, विजया से सभी स्थान संरक्षित ।।४१

 

कवच - रहित रक्षा - वर्जित हों, सभी तुम्हीं से रक्षित निश्चय ।

 

देवि जयन्ती ! पाप - नाशिनी हो तुम, रक्षा करो निरामय ॥४२

 

जित - कवच देह सुख के हित, जाये कहीं न एक चरण घर ।

 

कवचावृत हो किसी दिशा में करे भ्रमण अति , निर्भय होकर ॥४३

 

उसे लाभ होता धन का, पा लेता विजय कामना चिन्तित ।

 

वैभव अतुल धरा पर पाता, कवचावृत जन जग में निश्चित ।।४४

 

कवच - सुरक्षित होता निर्भय, होता रण में जन अपराजित ।

 

हो जाता सामान्य मनुज भी, पूज्य त्रिलोक विश्व अभि-वन्दित ।।४५

 

यह देवी का कवच देवताओं को भी अति दुर्लभ पावन ।

 

नित्य नियम - पूर्वक श्रद्धा - युत,. सन्ध्या - त्रय पढ़ता साधक - जन ।।४६

 

उसे कला दैवी मिलती, वह रहता तीन लोक में अविजित ।

 

वर्जित  हो अप - मृत्यु - शताधिक, वर्ष आयु पाता वह निश्चित ।।४७

 

सभी व्याधियाँ मिटतीं उसकी, लूत स्फोट आदिक होकर क्षय ।

 

स्थावर जङ्गम कृत्रिम विष, होते नष्ट कवच - फल दुर्जय ।।४८

 

 

सभी कर्म अभिचार क्रिया के, तन्त्र - मन्त्र आदिक जो भू - तल ।

 

भू, नभ, जल - चारी उपदेशक, देवों का दल जो संयुत बल ।। ४९

 

जन्म साथ के, कुल - दैवत-माला, डाकिनि-शाकिनि अति भीषण ।

 

अन्तरिक्ष - गामी कराल अति, डाकिनियाँ बल-वती सहित गण ।।५०

 

ग्रह - समुदाय, भूत, राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, यक्ष आदिक दल ।

 

हों चाहे बैताल, ब्रह्म - राक्षस, कूष्माण्ड आदि भैरव बल ।।५१

 

हो जाते हैं नष्ट देखकर, हृदय - कवच - धारी सम्मुख जन ।

 

राज - मान पाता अति उत्तम, पाता वह अति पुष्ट तेज-धन ।।५२

 

वह होता सत्कीर्ति - युक्त, भू - तल पर वर्धित वध यश होता कल ।

 

पूर्व कवच का पाठ, अनन्तर सप्तशती पढ़ता जो निश्छल ।।५३

 

 

 

उसका वंश पुत्र - पौत्रादिक, रहता संस्थित इस धरणी पर ।

 

जब तक हैं सारे वन - कानन, गिरि - संस्थित वसुधा-तल ऊपर ।।५४

 

होने पर देहान्त मनुज वह, जगदम्बा प्रसाद से अक्षय ।

 

पाता वह परमोच्च नित्य - पद, जो सुर - गण को दुर्लभ चिन्मय ।।५५

 

पाता वह अति दिव्य कान्ति-मय, रूप अलौकिक अगम अगोचर ।

 

और परम कल्याण धाम शिव, निकट प्राप्त करता प्रमोद वर ।।५६

 
 
 

दुर्गा शप्त शती

 

वेदोक्त रात्रि-सूक्त

 

विनियोग- 

इस रात्रि-सूक्त के ऋषि कुशिक, छन्द गायत्री, देवता रात्रि और इसके पाठ का विनियोग जगदम्बा की प्रीति के लिये है।

 

देवी विभावरी ! सर्वेन्द्रिय की तत्त्व-प्रकाशक ।

निज निर्मित जग-जीवों के कर्मों की दर्शक । 

देख कर्म-क्रम, तदनुसार फल-दान विधायक । 

सब विभूतियों की इस हेतु सनातन नायक ।।१

देवि सनातनि ! अमर रूप परि-व्याप्त जग-स्थल ।

 निम्नग लता ऊर्ध्व-गामी वृक्षों में प्रति थल ।

 स्थूल प्रकृति के साथ जगत के जीवों का तम ।

 ज्ञान - ज्योति फैला, अज्ञान हरें जग-विभ्रम ॥२ 

परा प्रकृति चिद्-शक्ति निशा-देवी करुणाकर ।

 प्रकट, ब्रह्म-विद्या-मय उषा देवि को लाकर ।।

 विश्व-प्रकाशक उषा ज्ञान की ज्योति दिवाकर । 

मिटे अविद्या अन्धकार का दुरित ताप कर ॥३

 हों प्रसन्न रजनी देवी मुझ पर अब सत्वर । 

सुख से शयन करें गृह में उनके आने पर ।

  जैसे विहग - वृन्द अपने नीड़ों में जाकर ।

  रात्रि-काल में करते शयन शांति-सुख से भर ।।४

 

 

अति विराट् है, गोद देवि रजनी की व्यापक ।

 करुणा-मयि के अंचल में सोये मृग-शावक । 

धेनु-वर्ग, पशु, पक्षी, मानव ग्राम विधायक । 

कीट, पतङ्ग बने सह यात्री  निद्रा वाहक ।।५

 

देवि निशा चिद्-शक्ति ! बनो हम पर करुणा-मय । 

भोग-वासना के वृक-वृकी हटा दो चिन्मय । 

तस्कर जैसे कुशल काम को दूर हटा कर ।

 मोक्ष और कल्याण प्रदायक बनो दया कर ॥६

 

उषा देवि ! तुम अधिष्ठात्रि निशि की हो चिन्मय ।

 मेरे निकट प्रसारित यह अह अज्ञान तमो-मय । 

ऋणी जनों को धन देकर ज्यों ऋण मोचन कर । 

उसी तरह दो ज्ञान-ज्योति, अज्ञान तमो-हर ॥७

 

माँ विभावरी ! तुम गौ-माता दुग्ध-प्रदायक । 

 शरणागत स्तवन-निरत हूँ आश्रय लायक ।

महदाकाश ब्रह्म-पुत्री ! मैं काम  मैं शत्रु जित । 

हुआ कृपा से, स्तोम भाँति हवि

हो अंगीकृत ॥८